Saturday, December 10, 2011

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें Main unhen chhedoon aur kuchh na kahen-Mirza Ghalib

मैं  उन्हें  छेड़ूँ  और  कुछ  न  कहें
चल  निकलते, जो मय पिए होते

क़हर हो, या बाला हो, जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिए जिए होते!

मेरी क़िस्मत में  ग़म  गर इतना था
दिल भी या रब, कई  दिए  होते

आ ही जाता वो: रह  पर 'ग़ालिब'!
कोई   दिन और  भी  जिए  होते
                                       -मिर्ज़ा असद-उल्ला: खाँ 'ग़ालिब'

Monday, October 24, 2011

बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे Bazeecha e Atfal Hai Duniya Mere Aage - Mirza Ghalib

बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल  है दुनिया मेरे आगे
होता है  शब-ओ-रोज़  तमाशा मेरे आगे

इक खेल है औरंगे-ए-सुलेमाँ मेरे नज़दीक
इक बात है  एजाज़े मसीहा मेरे आगे

जुज़ नाम, नहीं सूरते आलम मुझे मंजूर
जुज़ वहम  नहीं, हस्ति-ए-आशिया मेरे आगे

होता है निहाँ  गर्द में सहरा, मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे: दरिया मेरे आगे

मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू  देख  के: क्या रंग  है तेरा मेरे आगे

सच कहते  हो, खुदबीन-ओ-खुदआरा  हूँ, न: क्यूँ हूँ ?
बैठा  है  बूते  आईन:  सीमा  मेरे  आगे

फिर  देखिए अन्दाज़े  गुलअफ्शानि-ए-गुफ़्तार
रखदे  कोई  पैमान:-ए-सहबा  मेरे  आगे

नफ़रत  का  गुमाँ  गुज़रे  है,  मैं रश्क से गुज़रा
क्यूँकर कहूँ, लो नाम  न: उनका  मेरे आगे

ईमाँ  मुझे  रोक है, जो खेंचे  है  मुझे कुफ्र
कअब:  मेरे  पीछे है कलीसा मेरे आगे

आशिक़ हूँ, पे: माशूक फ़रेबी है मेरा काम
मजनूँ  को  बुरा  कहती  है लैला मेरे आगे

खुश  होते  हैं, पर  वस्ल में यूँ  मर  नहीं  जाते !
आई  शबे  हिजराँ  की  तमन्ना  मेरे  आगे

है  मौजज़न  इक कुल्जुमे खूँ, काश ! यही हो
आता  है  अभी देखिए  क्या-क्या मेरे आगे

गो  हाथ  को  जुंबिश  नहीं, आखों में तो दम है
रहने  दो अभी  सगार-ओ-मीना  मेरे  आगे

हमपेश:-ओ-हम  मशराब-ओ-हमराज़  है  मेरा
'ग़ालिब' को बुरा क्यूँ  कहो अच्छा  मेरे आगे
                                                         -मिर्ज़ा असद-उल्लाह: खाँ  'ग़ालिब'

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बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल=बच्चों के खेल का मैदान;  शब-ओ-रोज़=दिन रात;  औरंगे-ए-सुलेमाँ='सुलेमान' अवतार का सिंहासन; एजाज़े मसीहा=ईसा(jesus) का चमत्कार;  जुज़(सिवा) नाम=नाम के अतिरिक्त;
सूरते आलम(संसार)=संसार रूप;  जुज़ वहम=भ्रम के सिवा;  हस्ति-ए-आशिया=वस्तुओं का अस्तित्व; निहाँ=गुप्त; गर्द=धूल; सहरा=जंगल; जबीं=माथा; ख़ाक=मिट्टी(धरती);
खुदबीन-ओ-खुदआरा=अभिमानता और खुद को अलंकृत करने वाला;  बूते  आईन:=प्रेमिका का आईन; सीमा=खास कर;  अन्दाज़े  गुलअफ्शानि-ए-गुफ़्तार =बातों से फूल बरसने के समान;
पैमान:-ए-सहबा=अंगूरों की शराब का प्याला;   गुमाँ=संभावना; रश्क=ईर्ष्या; ईमाँ=धर्म; कुफ्र=अधर्म(पाप); कअब:=काबा(मुसलमानो का तीर्थ स्थल );  कलीसा=गिरजा(ईसाईयों का पूजा स्थल);
माशूक फ़रेबी=धोका देने वाला;  वस्ल=मिलन; शबे  हिजराँ=विरह की रात्रि; मौजज़न=लहरें मारने वाला; कुल्जुमे खूँ=खून का दरिया;  जुंबिश=हिलना;  सगार-ओ-मीना=जाम और सुराही;
हमपेश:=जो कार्य मैं करूँ वही दूसरा करे; ओ=और;  हम  मशराब=मेरे ही स्वभाव का;
हमराज़=यहाँ  'भेदी' से अभीप्रयाय है;

Monday, October 10, 2011

ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयाँ अपना Jikra us parivash ka aur fir bayaan apna

ज़िक्र  उस  परीवश  का, और  फिर  बयाँ  अपना
बन  गया  रक़ीब  आखिर,  था  जो  राज़दाँ  अपना

मय  वो:  क्यूँ  बहुत  पीते  बज़्मे  ग़ैर  में  यारब !
आज  ही  हुआ  मंजूर  उन  को  इम्तिहाँ  अपना

मंज़र  इक  बुलन्दी  पर  और  हम  बना  सकते
अर्श  से  इधर  होता  काश  के  मकाँ  अपना

दे  वो: जिस  क़दर  ज़िल्लत,  हम  हँसी  में  टालेंगे
बारे  आशना  निकला  उनका  पासबाँ,  अपना

दर्दे  दिल  लिखूँ  कब  तक, जाऊँ  उनको  दिखला  दूँ
उंगलियाँ  फ़िगार  अपनी,  खाम: खूँ  चकाँ  अपना

घिसते  घिसते  मिट  जाता,  आपने  अबस  बदला
नंगे  सिज्द:  से  मेरे,  संगे  आस्ताँ  अपना

ता  करे  न  गम्माज़ी , कर  लिया  है  दुश्मन  को
दोस्त  की   शिकायत  में  हमने  हमज़बाँ  अपना

हम  कहाँ  के  दाना  थे,  किस  हुनर  में  यक्ता  थे
बेसबब  हुआ ‘ग़ालिब’ ! दुश्मन  आसमाँ  अपना
                                                           -मिर्ज़ा असद-उल्लाह: खाँ  'ग़ालिब'
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परीवश=सुन्दरी; रक़ीब=प्रतिद्वंदी(दुसमन);  राज़दाँ=भेद जानने  वाला; मय=शराब;  बज़्मे=गोष्ठी(महफ़िल);
अर्श=आकास; ज़िल्लत=अपमान;  पासबाँ=द्वारपाल(gatekeeper); फ़िगार=घायल; खाम: खूँ  चकाँ=खून से
भरा कलम; अबस=व्यर्थ; नंगे  सिज्द:=माथे का वह चिन्ह जो सजदः(सजदा)करते करते पड़ जाता है;
संगे  आस्ताँ=चौखट का पत्थर; गम्माज़ी=चुगली; हमज़बाँ=अपनी जैसी जुबान वाला,(यहाँ "समर्थक" से अभिप्राय है )
दाना=बुद्धिमान;  यक्ता=अद्वितीय(जिसके सामान दुनिया में कोई दूसरा न हो)



Sunday, August 14, 2011

ख़िरद मन्दो से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है Khirad mando se kya poochhoon ki meri ibtida kya hai.

Iqbal shayari in hindi
ख़िरद मन्दो  से  क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
कि मैं इस फिक्र में रहता हूँ मेरी इन्तहा क्या है

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रिज़ा क्या है

नज़र आई  मुझे तक़दीर की गहराइयाँ इसमें
न पूछ ऐ हमनशी मुझसे वो चश्मे-सुर्मा-सा क्या है

नवाए-सुबह गाही ने जिगर खूँ कर दिया मेरा
खुदाया जिस खता की यह सज़ा है वो खता क्या है  

                                       - अल्लामा मुहम्मद 'इक़बाल'
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 ख़िरद=ज्ञानी ; इब्तिदा=आरंभ ; इन्तहा=अंत ; रिज़ा=भाग्य ; हमनशी=इच्छा ;
 चश्मे-सुर्मा=आँख का सुर्मा ; नवाए-सुबह=सुबह की आवाजें ; 

Friday, July 29, 2011

बे-खुदी ले गई कहाँ हम को Be-khudi le gayi kahaan ham ko

Meer Taqi Meer ke Nagme
बे-खुदी  ले  गई  कहाँ  हम  को
देर  से  इंतज़ार  है  अपना

रोते  फिरते  हैं  सारी-सारी  रात
अब  यही  रोज़गार  है  अपना

दे  के  दिल  हम  जो  हो  गए  मजबूर
इसमें  क्या  इख्तियार  है  अपना

कुछ  नहीं  हम  मिसाल-ए-उनका  ले  के
शहर-शहर  इश्तहार  है  अपना

जिसको  तुम  आसमान  कहते  हो
सौ   दिलों  का  गुबार  है  अपना
                                               -मीर तकी मीर

Sunday, July 3, 2011

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ, के: पीटूँ जिगर को मैं ? HairaaN hoon dil ko ro'oon ki peetoon jigar ko main

हैराँ  हूँ  दिल  को   रोऊँ,  के:  पीटूँ  जिगर  को  मैं
मक़दूर  हो  तो  साथ  रखूँ  नोह: गार  को  मैं

छोड़ा  न:  रश्क   ने   के:  तेरे  घर  का  नाम  लूँ
हर  यक  से  पूछता   हूँ  के:  जाऊँ  किधर  को  मैं ?

जाना  पड़ा  रक़ीब  के  दर  पर  हज़ार  बार
ए  काश !  जानता  न:  तेरे  रहगुज़र  को  मैं

है  क्या  जो  कस  के  बाँधिए,  मेरी  बाला  डरे
क्या  जनता  नहीं  हूँ  तुम्हारी  कमर  को  मैं

लो  वो:  भी  कहते  हैं  के: ये:  बे  नंग-ओ-नाम  है
ये: जानता  अगर,  तो  लुटाता  न:  घर  को  मैं

चलता  हूँ  थोड़ी  दूर  हर  इक  तेज़रौ  के  साथ
पहचानता  नहीं  हूँ  अभी  राहबर  को  मैं

ख़्वाहिश  को  अहमक़ों  ने  परस्तिश  दिया  क़रार
क्या  पूजता  हूँ  उस  बूते  बेदादगर   को   मैं ?

फिर  बेखुदी  में  भूल  गया  राहे  कू-ए-यार
जाता  वगर्न: एक  दिन  अपनी  ख़बर  को  मैं

अपने  पे: कर  रहा  हूँ  कियास   अहले  दहर  का
समझा  हूँ   दिल पज़ीर   मताअ-ए-हुनर  को  मैं

ग़ालिब ! खुदा  करे  के:  सवारे  समन्दे  नाज़
देखूँ   अली  बहादुरे   आली  गुहर   को   मैं
                                               - मिर्ज़ा असद-उल्लाह: खाँ  'ग़ालिब'
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मक़दूर=सामर्थ्य;  नोह: गार=मातम करने वाला;  रश्क=इर्ष्या;  रक़ीब=प्रतिद्वंदी(दुसमन); रहगुज़र=मार्ग;
बे नंग-ओ-नाम=बद चलन;  तेज़रौ=तीव्रगामी(तेज़ चलने वाली);  राहबर=मार्ग दर्शक; परस्तिश=पूजना;
बूते  बेदादगर=मस्ती;  राहे  कू-ए-यार=प्रेमी की गली का मार्ग;  कियास=अनुमान;  अहले  दहर=दुनिया वाले;
दिल पज़ीर=मनोवांछित(मन मुताबित);  मताअ-ए-हुनर=कला की सम्पत्ति;  सवारे  समन्दे  नाज़=गर्व के
घोड़े पे सवार;  अली  बहादुरे=ग़ालिब का मित्र;   आली गुहर=अधिक मूल्यवान;

Tuesday, June 28, 2011

ये: न: थी हमारी क़िस्मत के विसाले यार होता Ye na thi hamari kismat ke visale yaar hota-Galib

Mirza Ghalib poetry in Hindi
ये:  न:  थी  हमारी  क़िस्मत  के  विसाले  यार  होता
अगर  और  जीते  रहते , यही   इंतज़ार  होता

तेरे  वादे  पर  जिए  हम , तो  ये:,  जान  झूठ  जाना
के  ख़ुशी  से  मर  न: जाते, अगर  एतिबार  होता

तेरी  नाजुकी  से  जाना  के: बँधा  था  अहद  बोदा
कभी  तू  न: तोड़  सकता, अगर  उस्तवार होता

कोई  मेरे  दिल  से  पूछे,  तेरे  तीरे नीमकश  को
ये  ख़लिश  कहाँ  से  होती,  जो  जिगर  के  पार होता

ये: कहाँ  की  दोस्ती  है  के:  बने  हैं  दोस्त,  नासेह
कोई  चारासाज़  होता,  कोई  ग़मगुसार  होता

रगे  संग  से  टपकता  वो: लहू  के: फिर  न:  थमता
जिसे  ग़म  समझ  रहे  हो,  ये:  अगर  शरार  होता

गम   अगर्चे  जाँगुसिल  है,  पे:  कहाँ  बचें  के: दिल है
गमे  इश्क  गर  न  होता,  गमे  रोज़गार   होता

कहूँ   किससे  मैं   के: क्या  है, शबे  ग़म  बुरी  बाला  है
मुझे  क्या  बुरा  था  मरना  अगर  एक  बार  होता

हुए  मर  के:  हम  जो  रुस्वा,  हुए  क्यूँ  न:  गर्के  दरिया
न:  कभी  जनाज़ा  उठता, न  कहीं  मज़ार  होता

उसे  कौन  देख  सकता  के:, यागन:  है  वो: यक्ता
जो  दुई  की  बू  भी  होती,  तो  कहीं  दुचार  होता

ये:  मसाइले  तसव्वुफ़ ,  ये  तेरा  बयान, ग़ालिब !
तुझे  हम  वली  समझते, जो  न:  बादः ख्वार  होता

                                                                                               -मिर्ज़ा असद-उल्लाह: खाँ  'ग़ालिब'

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विसाले=मिलन ;  अहद  बोदा=कच्ची प्रतिज्ञा ;  उस्तवार=पक्का ;  तीरे नीमकश=अध खींचा हुआ तीर ;
ख़लिश=चुभन ;  नासेह=एक या बहुत से आदमी ;  चारासाज़=उपचारक ;  ग़मगुसार=दुःख का साथी ;  रगे  संग=पत्थर की नस ;  शरार=चिंगारी ;  अगर्चे=यधपि,गोकि ;  जाँगुसिल=कष्टदायक ;
गमे  इश्क=प्रेम का संताप ;  गमे  रोज़गार=संसार की चिन्ता ;  शबे  ग़म=रात्रि का विरह(विरह=जुदाई का दर्द);
रुस्वा=बदनाम ;  गर्के  दरिया=दरिया में डूबना ;  यागन:=अलग ;  यक्ता=अकेला ;  दुई=झगड़ा ;
दुचार=सामने आना ;  मसाइले  तसव्वुफ़=ब्रहमवाद की समस्याएं ;   बादः ख्वार=शराबी ;

Saturday, June 4, 2011

अजब नशात से, जल्लाद के चले हैं हम आगे Ajab nashat se jallad ke chale hain hum aage-Galib

अजब  नशात  से, जल्लाद के चले  हैं  हम आगे
के: अपने साये से सर, पाँव से है दो कदम आगे

कज़ा  ने  था  मुझे  चाहा  ख़राबे  बादः-ए-उल्फ़त
फ़क़त  'ख़राब' लिखा, बस नः चल सका कलम आगे

ग़मे  ज़मानः ने  झाड़ी  नाश्ते  इश्क़  की मस्ती
वगर्न: हम भी उठाते थे लज्ज़ते  अलम  आगे

खुदा  के  वास्ते  दाद  इस जुनूने शौक़ की देना
के  उसके  दर  पे: पहोंचते हैं नामःबार से हम आगे

ये:  उम्र  भर  जो  परीशानियाँ  उठाई  हैं  हमने
तुम्हारे आइयो  ऐ  तुर्र: हाए ख़म  बः  ख़म, आगे

दिल-ओ-जिगर  में  परअफशाँ जो एक  मौज:-ए-खूँ  है
हम  अपने  ज़ओम में समझे हुए थे उसको दम आगे

क़सम  जनाज़े  पे: आने  की  मेरे  खाते  हैं  'ग़ालिब'
हमेशा: खाते  थे  जो  मेरी जान  की  क़सम, आगे 

                                        -मिर्ज़ा असद-उल्लाः खाँ  'ग़ालिब'

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नशात=हर्ष;  कज़ा=मौत;  ख़राबे  बादः-ए-उल्फ़त=मदिरा की चाहत मे नष्ट;  ग़मे  ज़मानः=दुनिया के दुःख;
नाश्ते  इश्क़=प्रेम का हर्ष (खुसी);   लज्ज़ते  अलम=दुखों का आनंद;  नामःबार=डाकिया;  
तुर्र: हाए ख़म  बः  ख़म=घूँघरियली बालों की लटें;   परअफशाँ=व्याकुल (बेचैन);
    मौज:-ए-खूँ=खून की लहर;  ज़ओम=घमंड;   दम=सांस;           

Sunday, May 22, 2011

हुई ताखीर, तो कुछ बाइसे ताखीर भी था Hui takhir, Toh kuch baaise takhir bhi tha

हुई ताखीर, तो कुछ बाइसे ताखीर भी था
आप आते थे, मगर कोई इनाँगीर भी था

तुमसे बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उससे कुछ शाइब-ए-खूबी-ए-तकदीर भी था

तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूं
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख्चीर भी था ?

कैद में है तेरे वहशी की वोही जुल्फ की याद
हाँ कुछ इक रंजे गराँ बारि-ए-जंजीर भी था

बिजली कोंद गई आँखों के आगे, तो क्या
बात करते, के: मैं लब तश्न:-ए-तक़रीर भी था

युसूफ उसको कहूँ और कुछ  न: कहे, ख़ैर हुई
गर बिगड़  बैठे, तो  मैं लायक़े तअज़ीर भी था

देखकर  गैर,  क्यों हो न: कलेजा ठंडा
नाल: करता था, वले तालिबे तासीर भी था

पेशे में ऐब नहीं, रखिए नः  'फरहाद' को  नाम
हम ही आशुफ़्ता सरों में वोः जवाँ  'मीर'  भी था

हम थे मरने को खड़े, पास नः आया, नः सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था

पकडे जातें हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक
आदमी कोई हमारा दमे तहरीर भी था ?

रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो  'ग़ालिब'
कहतें हैं, अगले ज़माने में कोई  'मीर' भी था  

                          -मिर्ज़ा असद-उल्लाः खाँ  'ग़ालिब'

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ताखीर=ढील,देर;  बाइसे=कारण;  बेजा=बिना कारण;  शाइब=मिलावट,शक;  खूबी-ए-तकदी=सौभाग्य;
फ़ितराक=शिकारी का थैला;  नख्चीर=शिकार किया हुआ जानवर;  वहशी=पागल;  बारि-ए-जंजीर=जंजीर
के बोझ का कष्ट;  कोंद=चमक देना;   तश्न:-ए-तक़रीर=प्यासे होटों की आवाज;  युसूफ=एक अवतार का
नाम जो अपनी सुन्दरता में प्रसिद्ध थे(यहाँ प्रेमी लिया गया है);  तअज़ीर=सजा के योग्य;  नाल:=रुदन(रोना)
तासीर=प्रभाव;  सरों=दीवानों,पागलों;  मीर=ग़ालिब से पूर्व एक प्रसिद्ध शायर का नाम;  सोख़=चंचल;



Monday, May 16, 2011

वो कहती है सुनो जानम मोहब्बत मोम का घर है Wo kahti hai suno janam mohabbat mom ka ghar hai

Famous shayari collection in Hindi
 वो  कहती  है  सुनो  जानम
मोहब्बत  मोम का  घर  है
तपिश ये बदगुमानी  की
कहीं  पिघला  न  दे  इस को

मैं  कहता  हूँ
जिस  दिल  मैं  ज़रा  भी   बदगुमानी   हो
वहाँ  कुछ  और  हो  तो   हो
मोहब्बत  हो  नहीं  सकती

वो  कहती  है  सदा  ऐसे  ही
क्या  तुम  मुझको  चाहो  गे
के  मैं  इस  में  कमी  बिलकुल
गवारा  कर  नहीं  सकती

मैं  कहता  हूँ
मोहब्बत  क्या  है
यह  तुम  ने  सिखाया  है
मुझे  तुम  से  मोहब्बत  के  सिवा
कुछ  भी  नहीं  आता

वो  कहती  है
जुदाई  से  बहुत  डरता  है  मेरा  दिल
के   खुद  को  तुम  से  हट  कर  देखना
मुमकिन  नहीं  है  अब

मैं  कहता  हूँ
यही  खद्शे  बहुत  मुझ  को  सतातें  हैं
मगर  सच  है  मोहब्बत  में
जुदाई  साथ  चलती  है

वो  कहती  है
बताओ  क्या  मेरे  बिन  जी  सको  गे  तुम
मेरी  बातें, मेरी  यादें, मेरी  ऑंखें
भुला  दो  गे

मैं  कहता  हूँ
कभी  इस   बात  पर  सोचा  नहीं  मैं ने
अगर  इक  पल  को  भी  सोचूँ   तो
साँसें  रुकने  लगती  हैं

वो  कहती  है  तुम्हें  मुझ से
मोहब्बत  इस  कदर  क्यों  है
के  मैं  इक  आम  सी  लड़की
तुम्हें  क्यों  खास  लगती  हूँ

मैं  कहता  हूँ
कभी  खुद  को  मेरी  आँखों  से  तुम  देखो
मेरी  दीवानगी  क्यों  है
ये   खुद  ही  जान  जाओ  गी

वो  कहती  है
मुझे  वारफ्तगी  से  देखते  क्यों  हो
के  मैं  खुद  को  बहुत
किमती  महसूस  करती  हूँ

मैं  कहता  हूँ
मता-ए-जां  बहुत अनमोल  होती  है
तुम्हें  जब  देखता  हूँ  जिन्दगी
महसूस  करता  हूँ

वो  कहती  है  मुझे अल्फाज़ के जुगनू  नहीं  मिलते
के  तुम्हें  बता  सकूं
के   दिल  में  मेरे
कितनी  मुहब्बत  है

मैं  कहता  हूँ
मुहब्बत  तो  निघाहों से  झलकती  है
तुम्हारी  खामोसी  मुझसे
तुम्हारी  बात  करती  हैं

वो  कहती  है
बताओ  न  किस  को  खोने  से  डरते  हो
बताओ  कौन  है  वो  जिसे
ये  मौसम  बुलातें  हैं

मैं कहता  हूँ
यह  मेरी  शाएरी  है  आइना  दिल  का
ज़रा  देखो  बताओ  क्या
तुम्हें  इस  में  नज़र  आया

वो  कहती  है
आतिफ  जी  बहुत  बातें  बनाते  हो
मगर  सच  है  ये  बातें
बहुत  ही  शाद  रखती  हैं

मैं  कहता  हूँ
यह  सब  बातें  ये  फशाने  इक  बहाना  है
के  पल  कुछ  जिंदगानी  के
तुम्हारे  साथ  कट  जाएँ

फिर  उस  के  बाद  ख़ामोशी  का
दिलकश  रक्स  होता  है
निगाहें   बोलती  है  और
लब  खामोश  रहते  हैं

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1 वारफ्तगी=खोया-खोयापन; 2 बदगुमानी=किसी की ओर से बुरा खयाल
3 खद्शे=डर; 4 मता-ए-जां=जान की कीमत; 5 शाद=खुश; 6 रक्स=नृत्य

                                                     

Saturday, May 14, 2011

ये तो नहीं कि ग़म नहीं ye toh nahin ki gam nahin

 ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं

तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं

अब न खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं

मेरी नशिस्त है ज़मीं
खुल्द नहीं इरम नहीं

क़ीमत-ए-हुस्न दो जहाँ
कोई बड़ी रक़म नहीं

लेते हैं मोल दो जहाँ
दाम नहीं दिरम नहीं

सोम-ओ-सलात से फ़िराक़
मेरे गुनाह कम नहीं

मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं 

                           -फ़िराक़ गोरखपुरी

दोस्त अहबाब की नज़रों में (Dost ki ahbaab nazron mein)

दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
वक़्त की बात है क्या होना था क्या हो गया मैं

दिल के दरवाज़े को वा रखने की आदत थी मुझे
याद आता नहीं कब किससे जुदा हो गया मैं

कैसे तू सुनता बड़ा शोर था सन्नाटों का
दूर से आती हुई ऐसी सदा हो गया मैं

क्या सबब इसका था, मैं खुद भी नहीं जानता हूँ
रात खुश आ गई और दिन से ख़फ़ा हो गया मैं

भूले-बिछड़े हुए लोगों में कशिश अब भी है
उनका ज़िक्र आया कि फिर नग़्मासरा हो गया मैं

                                                                 -शहरयार
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वा=खुला; नग़्मासरा= सुमधुर गाने वाला

Monday, May 9, 2011

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग (Mujhse pehli si mohabbat mere mehboob na maang)

मुझसे  पहली  सी   मोहब्बत  मेरे  महबूब   न  मांग

मैंने  समझा  था  के  तू   है  तो  दरख्शां  है  हय्यात
तेरा  ग़म   है  तो  शाम -ए-दहर  का  झगड़ा क्या  है

तेरी  सूरत  से  है  आलम  में  बहारों  को  सबात
तेरी  आँखों  के  सिवा दुनिया में  रखा  क्या  है

तू  जो  मिल  जाये  तो  तकदीर  निगूं  हो  जाये
यूँ  न  था  मैंने  फ़क़त  चाह  था  यूँ  हो  जाये

और  भी  दुःख  हैं  ज़माने  में  मोहब्बत  के  सिवा
राहतें और  भी  हैं  वस्ल  की  राहत  के  सिवा

मुझे  पहली  सी  मोहब्बत  मेरे  महबूब  न  मांग

अनगिनत  सदियों  के  तारिक  बहिमाना  तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख्वाब  में  बुनवाये  हुए

जा-ब-जा  बिकते  हुए  कूचा-ओ-बाज़ार  में  जिस्म
ख़ाक  में  लिथरे हुए , खून  में  नेहलाए  हुए

जिस्म  निकले  हुए  अमराज़  के  तन्नूरों  से
पीप  बहती   हुई  जलते  हुए   नासूरों  से

लौट  जाती  है  उधर  को  भी  नज़र  क्या  की  जिए
अब  भी  दिलकश  है  तेरा  हुस्न  मगर  क्या  की  जिए

और  भी  दुःख  हैं  मोहब्बत  के  दुःख  के  सिवा
राहतें और  भी  हैं  वस्ल  की  राहत  के  सिवा

मुझसे  पहली  सी  मोहब्बत  मेरे   महबूब  न  मांग
                                                                       -फैज़

Friday, March 25, 2011

हुस्न भी था उदास HUSSAN BHI THA UDAS

हुस्न भी था उदास,उदास ,शाम भी थी धुआं-धुआं  ,
याद सी आके रह गयी दिल को कई कहानियां |

छेड़ के दास्तान-ए-गम अहले वतन के दरमियाँ ,
हम अभी बीच में थे और बदल गई ज़बां |

सरहद-ए-ग़ैब तक तुझे साफ मिलेंगे नक्श-ए-पा ,
पूछना यह फिरा हूं मैं तेरे लिए कहां- कहां |

रंग जमा के उठ गई कितने तमददुनो की बज्म ,
याद नहीं ज़मीन को , भूल गया है आसमां |

जिसको भी देखिए वहीँ बज़्म में है गज़ल सरा,
छिड़ गयी दास्तान-ए-दिल बहदीस-ए-दीगरा |

बीत गए है लाख जुग सूये वतन चले हुए ,
पहुंची है आदमी की ज़ात चार कदम कशां-कशां |

जैसे से खिला हुआ गुलाब चांद के पास लहलहाए
रात वह दस्त-ए-नाज़ में जाम-ए-निशात-ए-अरगवां |

मुझको फिराक़ याद है पैकर-ए-रंग-ओ-बूए दोस्त ,
पांव से ता जबी-ए-नाज , मेहर फशां-ओ-मह चुका |
                                                                -फ़िराक़ गोरखपुरी
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अहले वतन=देशवासी ; सरहद-ए-ग़ैब=अज्ञात सीमा ;
नक्श-ए-पा=पांव के निशान ; तमददुनो=सभ्यताओं ;
सरा=गायक ; बहदीस-ए-दीगरा=दूसरों की बातों के साथ
सूये=तरफ,ओर ;  कशां-कशां=खिंचे-खिंचे ;दस्त-ए-नाज़=नाजुक हाथ;
जाम-ए-निशात-ए-अरगवां=उनके हाथों में शराब क जाम बिकुल ऐसे
ही है जी चांद के पास खिला हुआ गुलाब ; पैकर-ए-रंग-ओ-बूए दोस्त=
महबूब की छवि-रंग और सुगंध ; जबी-ए-नाज=पांव से माथे तक
फशां-ओ-मह चुका=सूरज और चांद की तरह रोशनी फूट रही है |



Saturday, February 26, 2011

चाँद तनहा है Chand Tanha Hai

Best Poetry Collection in Hindi
 चाँद  तनहा  है  आसमान  तनहा
दिल  मिला  है  कहाँ  कहाँ  तनहा

बुझ  गयी  आस  छुप  गया  तारा
थर  थराता  रहा  धुआं  तनहा

ज़िन्दगी  क्या  इसी  को  कहते  हैं
जिस्म  तनहा  है  और  जां  तनहा

हमसफ़र  कोई  गर  मिले  भी  कहीं
दोनों  चलते  रहे  तनहा  तनहा

जलती  बुझती  सी  रोशनी  के  परे
सिमटा  सिमटा  सा  एक  मकां तनहा

राह  देखा  करेगा  सदियों  तक
छोड़  जायेंगे  ये  जहां  तनहा
              
                                                      -मीना कुमारी