मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते, जो मय पिए होते
क़हर हो, या बाला हो, जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिए जिए होते!
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब, कई दिए होते
आ ही जाता वो: रह पर 'ग़ालिब'!
कोई दिन और भी जिए होते
-मिर्ज़ा असद-उल्ला: खाँ 'ग़ालिब'
चल निकलते, जो मय पिए होते
क़हर हो, या बाला हो, जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिए जिए होते!
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब, कई दिए होते
आ ही जाता वो: रह पर 'ग़ालिब'!
कोई दिन और भी जिए होते
-मिर्ज़ा असद-उल्ला: खाँ 'ग़ालिब'
बहुत खूब
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