Thursday, December 15, 2016

मैं एक ढ़लती हुई शाम उसके नाम लिख रहा हूँ Main ek ḍhaltee hui shaam usake naam likh raha hoon

Main ek ḍhaltee hui shaam usake naam likh raha hoon
मैं एक ढ़लती हुई शाम उसके नाम लिख रहा हूँ।
एक प्यार भरे दिल का कत्लेआम लिख रहा हूँ।

ता उम्र मैं करता रहा जिस शाम उसका चर्चा,
मैं आज उसी शाम को नाकाम लिख रहा हूँ ।

सोचा था न जाऊँगा जहाँ उम्र भर कभी भी,
उस मैकदे में अब तो हर शाम दिख रहा हूँ ।

हाँसिल न हुआ जिसमें बस गम के शिवा कुछ भी,
मैं उस दीवानेपन का अंजाम लिख रहा हूँ ।

थी हीरे सी चमक मुझमें प्यार के उजाले में,
नफरत के अंधेरों में पथ्थर सा दिख रहा हूँ ।

दुनिया की निगाहों से जिसे था छुपाया करता,
उस बेवफा का नाम सरेआम लिख रहा हू ।

Friday, December 2, 2016

किसी की आँख में आँसू कहीं ठहरा हुआ होगा Kisi ki aankh mein aansoo kahin ṭhahara hua hoga

 किसी की आँख में आँसू कहीं ठहरा हुआ होगा
किसी की आँख में आँसू, कहीं ठहरा हुआ होगा
यकीनन दर्द का दरिया भी वहीँ सूखा हुआ होगा

जमाने की रवायत ने जुदा तुमसे किया मुझको
भरी दुनियाँ लुटी होगी, बड़ा सदमा हुआ होगा

धुँधले पड़े होंगे वो 'अक्स' जो कभी दिल में थे
वक्त की चोट से आईना-ए-दिल चटका हुआ होगा

बना तस्वीर यादों की, लिखे वो खून से गजलें
लिखे खत थे कभी उसने, उन्हें पढता हुआ होगा

कहीं मिल जाए भूले से, न पहचाने मुझे अब वो
उसकी याद का आँसू, कहीं गिरता हुआ होगा

Tuesday, November 29, 2016

कठिन है राह-गुज़र थोड़ी देर साथ चलो Kathin hai rahguzar thodi dur sath chalo

कठिन-है-राह-गुज़र-थोड़ी-देर-साथ-चलो
कठिन है राह-गुज़र थोड़ी देर साथ चलो।
बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी देर साथ चलो।

तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो।

नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं
बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो।

ये एक शब की मुलाक़ात भी गनीमत है
किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो।

तवाफ़-ए-मंज़िल-ए-जाना हमें भी करना है
‘फ़राज़’ तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो।
                                             
                                                          - अहमद फ़राज़

Sunday, November 27, 2016

छोटी सी ज़िंदगी है हर बात में खुश रहो chhoti si zindagi hai har baat mein khus raho

chhoti-si-zindagi-hai-har-baat-mein-khus-raho
छोटी सी ज़िंदगी है
हर बात में खुश रहो

जो चेहरा पास ना हो
उसकी आवाज में खुश रहो

कोई रूठा हो तुमसे
उसके इस अन्दाज में खुश रहो

जो लौट कर नहीं आने वाले
उन लम्हों की याद में खुश रहो

कल किसने देखा है
अपने आज में खुश रहो

खुशियों का इन्तजार किस लिए
दूसरों की मुस्कान में खुश रहो

क्यों तड़पते हो हर पल किसी के साथ को
कभी-कभी अपने आप में खुश रहो

छोटी सी तो ज़िंदगी है
हर हाल में खुश रहो

Sunday, November 20, 2016

देखा पलट के उस ने के हसरत उसे भी थी Dekha palat ke us ne ke hasrat usay bi thi

 देखा पलट के उस ने के हसरत उसे भी थी
हम जिस पर मिट गए थे मुहब्बत उसे भी थी

चुप हो गया था देख कर वो भी इधर उधर
दुनिया से मेरी तरह शिकायत उसे भी थी

ये सोच कर अंधेरे मे गले से लगा लिया
रातों को जागने की आदत उसे भी थी

वो रो दिया मुझ को परेशान देख कर
उस दिन पता लगा के मेरी ज़रूरत उसे भी थी

Tuesday, November 15, 2016

मार ही डाल मुझे चश्म-ए-अदा से पहले Maar hi Daal mujhe chasm-e-adaa se pahale

मार ही डाल मुझे चश्म-ए-अदा से पहले
अपनी मंजिल को पहुँच जाऊँगा कज़ा से पहले

इक नज़र देख लूं आ जाओ कज़ा से पहले
तुम से मिलने की तमन्ना है खुदा से पहले

हश्र के रोज़  मैं पूछूंगा खुदा से पहले
तूने रोका नहीं क्यों मुझको खता से पहले

ऐ मेरी मौत ठहर उनको जरा आने दे
जहर का जाम न दे मुझको दवा से पहले

हाथ पहुंचे भी न थे जुल्फ दोता तक मोमिन
हथकड़ी डाल दी ज़ालिम ने खता से पहले

                                              - मोमिन  ख़ाँ 'मोमिन'
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कज़ा=मौत;   हश्र = क़यामत का दिन;   दोता=मोड़

Tuesday, January 10, 2012

तुम जानो, तुमको ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो Tum jaano tumko gair se jo rasm-o-raah ho

तुम  जानो, तुमको  ग़ैर   से  जो  रस्म-ओ-राह  हो
मझको  भी  पूछते  रहो  तो  क्या  गुनाह  हो

बचते  नहीं  मुवाखज़:-ए-रोज़े  हश्र  से
कातिल  अगर  रक़ीब  है  तो  तुम  गवाह  हो

क्या  वो: भी  बेगुनह:  कुश-ओ-हक़  ना  शानस  है?
माना  के: तुम  बशर  नहीं,  खुरशीद-ओ-माह  हो

उभरा  हुआ  निक़ाब  में  है  उनके  एक  तार
मरता  हूँ  मैं  के:  ये:  न:  किसी  की  निगाह  हो

जब  मैकद:  छुटा  तो  फिर अब  क्या  जगह  की  कैद
मस्जिद  हो,  मदरस:  हो,  कोई  खानकाह  हो

सुनते  हैं  जो  बहिश्त  की  तअरीफ़  सब  दुरुस्त
लेकिन  ख़ुदा  करे  वो:  तेरा  जल्व:गाह  हो

'ग़ालिब'  भी  गर  न: हो, तो  कुछ  ऐसा  ज़रर  नहीं
दुनिया  हो  यारब,  और  मेरा  बादशाह  हो

                                         -मिर्ज़ा असद-उल्लाः खाँ 'ग़ालिब'
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रस्म-ओ-राह=सम्बन्ध; मुवाखज़:=उत्तरदायित्व; रोज़े  हश्र=प्रलय का दिन; बेगुनह:  कुश=निर्दोशियों
का वधक(मारने वाला); ओ=और; हक़  ना  शानस=सत्य को न जानने वाला; बशर=मानव;
खुरशीद-ओ-माह=सूर्य, और चन्द्रमा; निक़ाब=नकाब; कैद=यहाँ कैद से अभिप्राय प्रतिबन्ध से है;
मैकद:=मदिरालय; मदरस:=मदरसा(पाठशाला); खानकाह=आश्रम; बहिश्त=स्वर्ग; तअरीफ़=प्रशंसा;
दुरुस्त=ठीक; जल्व:गाह=दृश्यस्थल; ज़रर=हानि(घाटा)