Monday, October 10, 2011

ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयाँ अपना Jikra us parivash ka aur fir bayaan apna

ज़िक्र  उस  परीवश  का, और  फिर  बयाँ  अपना
बन  गया  रक़ीब  आखिर,  था  जो  राज़दाँ  अपना

मय  वो:  क्यूँ  बहुत  पीते  बज़्मे  ग़ैर  में  यारब !
आज  ही  हुआ  मंजूर  उन  को  इम्तिहाँ  अपना

मंज़र  इक  बुलन्दी  पर  और  हम  बना  सकते
अर्श  से  इधर  होता  काश  के  मकाँ  अपना

दे  वो: जिस  क़दर  ज़िल्लत,  हम  हँसी  में  टालेंगे
बारे  आशना  निकला  उनका  पासबाँ,  अपना

दर्दे  दिल  लिखूँ  कब  तक, जाऊँ  उनको  दिखला  दूँ
उंगलियाँ  फ़िगार  अपनी,  खाम: खूँ  चकाँ  अपना

घिसते  घिसते  मिट  जाता,  आपने  अबस  बदला
नंगे  सिज्द:  से  मेरे,  संगे  आस्ताँ  अपना

ता  करे  न  गम्माज़ी , कर  लिया  है  दुश्मन  को
दोस्त  की   शिकायत  में  हमने  हमज़बाँ  अपना

हम  कहाँ  के  दाना  थे,  किस  हुनर  में  यक्ता  थे
बेसबब  हुआ ‘ग़ालिब’ ! दुश्मन  आसमाँ  अपना
                                                           -मिर्ज़ा असद-उल्लाह: खाँ  'ग़ालिब'
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परीवश=सुन्दरी; रक़ीब=प्रतिद्वंदी(दुसमन);  राज़दाँ=भेद जानने  वाला; मय=शराब;  बज़्मे=गोष्ठी(महफ़िल);
अर्श=आकास; ज़िल्लत=अपमान;  पासबाँ=द्वारपाल(gatekeeper); फ़िगार=घायल; खाम: खूँ  चकाँ=खून से
भरा कलम; अबस=व्यर्थ; नंगे  सिज्द:=माथे का वह चिन्ह जो सजदः(सजदा)करते करते पड़ जाता है;
संगे  आस्ताँ=चौखट का पत्थर; गम्माज़ी=चुगली; हमज़बाँ=अपनी जैसी जुबान वाला,(यहाँ "समर्थक" से अभिप्राय है )
दाना=बुद्धिमान;  यक्ता=अद्वितीय(जिसके सामान दुनिया में कोई दूसरा न हो)



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