Monday, May 9, 2011

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग (Mujhse pehli si mohabbat mere mehboob na maang)

मुझसे  पहली  सी   मोहब्बत  मेरे  महबूब   न  मांग

मैंने  समझा  था  के  तू   है  तो  दरख्शां  है  हय्यात
तेरा  ग़म   है  तो  शाम -ए-दहर  का  झगड़ा क्या  है

तेरी  सूरत  से  है  आलम  में  बहारों  को  सबात
तेरी  आँखों  के  सिवा दुनिया में  रखा  क्या  है

तू  जो  मिल  जाये  तो  तकदीर  निगूं  हो  जाये
यूँ  न  था  मैंने  फ़क़त  चाह  था  यूँ  हो  जाये

और  भी  दुःख  हैं  ज़माने  में  मोहब्बत  के  सिवा
राहतें और  भी  हैं  वस्ल  की  राहत  के  सिवा

मुझे  पहली  सी  मोहब्बत  मेरे  महबूब  न  मांग

अनगिनत  सदियों  के  तारिक  बहिमाना  तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख्वाब  में  बुनवाये  हुए

जा-ब-जा  बिकते  हुए  कूचा-ओ-बाज़ार  में  जिस्म
ख़ाक  में  लिथरे हुए , खून  में  नेहलाए  हुए

जिस्म  निकले  हुए  अमराज़  के  तन्नूरों  से
पीप  बहती   हुई  जलते  हुए   नासूरों  से

लौट  जाती  है  उधर  को  भी  नज़र  क्या  की  जिए
अब  भी  दिलकश  है  तेरा  हुस्न  मगर  क्या  की  जिए

और  भी  दुःख  हैं  मोहब्बत  के  दुःख  के  सिवा
राहतें और  भी  हैं  वस्ल  की  राहत  के  सिवा

मुझसे  पहली  सी  मोहब्बत  मेरे   महबूब  न  मांग
                                                                       -फैज़

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